Saturday, June 22, 2013

जंगल में कविता (BARNAWAPARA WILDLIFE SANCTUARY)

‘’हमने जीप का इंजन बंद कर दिया ...सर्च लाइट भी ...चारों ओर घुप्प अँधेरा ..झींगुरों की आवाजें ...जानवरों की सरसराहटें और जंगल के सांस लेने की आवाजें ..जंगल की सांस कितनी साँसों से मिल कर बनी होती है ..उस अँधेरे में उस घड़ी मुझे पहली बार महसूस हुआ .जीप में सारे लोग जैसे दम साधे बैठे थे ..अपनी सांस को अपनी मुठ्ठी में दबाये ...ऊपर चमकते तारों से भरा आसमान ...यह जंगल का आसमान है जो सिर्फ यहीं देखा जा सकता है ....
कहने को तो सब एक है पर धरती के हर टुकड़े का आसमान अलग जान पड़ता है ....मुझे इस वक्त लद्दाख का नीला आसमान याद आ रहा है .....सब कुछ हमारे आसपास पर कितना दूर ...हवा है जो जंगल की कभी गीली कभी सूखी महक को हमारे पास लाती है ...जो जंगल के सूखे या गीले हिस्से की खबर देती है ....जानवरों की मिली जुली गंध से लबरेज ...मनुष्य के शरीर के सूचना तंत्र की तरह जंगल का सूचना तंत्र भी बड़ा प्रभावी है .एक छोटी सी चिड़िया से लेकर बड़े से बायसन तक ...एक सूत्र में घूमते .’’
‘’अँधेरे में जंगल में खड़े हम बायसन पर सर्च लाइट फेंकते हैं ..उनकी आँखें जलते लैम्पों सी इधर उधर घूमती हैं ....रौशनी की एक दीवार है हमारे बीच में ..इस दीवार के गिरने से हमें भय लगता है ..शायद उनको भी लगता हो .’’ 


‘’जंगल में नेटवर्क नहीं है ..हम मोबाइल हाथ में लिये मारे –मारे फिरते हैं कि किसी तरह किसी को अपने होने की जगह बता दें .भीतर से यह जानते हुए भी कि किसी को न इसकी परवाह है न कोई जानना चाहता है .हम डर भी रहे थे कि कहीं हमको न पता चल जाये कि हम कहाँ हैं ?’’  
कुतुबनुमा  
बारनवापरा अभयारण्य छत्तीसगढ़ में रायपुर के नजदीक स्थित है। महानदी यहाँ से करीब ही बहती है। आप यहाँ रायपुर से दिन की यात्रा पर जा सकते हैं। यदि रात में जंगल का मज़ा लेना हो तो आपको सरकारी रेस्ट हाउस में रुकना होगा। निकटतम रेल्वे स्टेशन महासमुंद पड़ता है।

‘’हम बोगन वेलिया की नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे हैं जबकि आसपास न जाने कितने सूखे वृक्ष पत्ते ,हरियाली और टहनी विहीन खड़े हैं ..हम वहां नहीं जाते..हम एक दुसरे को इतना तन्हा देख नहीं पा रहे .’’

‘’अँधेरे में घोस्ट ट्री चमक रहा है ...उसकी सूनी नंगी-बेतरतीब टहनियां आसमान की ओर उठती हुई ...ये जिनको रास्ता दिखाता होगा ..क्या उनसे अपना भी रास्ता पूछ लेता होगा ?’’

‘’पशुओं की आँखों में जलते दीयों को देखती मै सोचने लगी ...क्या इस रौशनी में मैं एक कविता लिख सकती हूँ ..फिर मुझे हंसी आ गयी ...कविता तो हम अँधेरे में लिखते हैं ..पशुओं के रोंओं के घुप्प आदिम अँधेरों में ...’’

‘’ज़ोर से सांस खींचो तो जंगल भीतर चला आयेगा ...ऐसा मेरे साथ हो चुका है . मेरे घरवाले मुझे खींचते हुए बाहर ले जाते हैं और मैं वहीँ पड़ी रह जाती हूँ ...उसकी साँसों से थरथराती ...’’





                         



                                                                                      
जया जादवानी
सर्वाधिकार सुरक्षित


                                                                                                                            



Saturday, April 6, 2013

पंछी ऐसे आते हैं -- खीचन (BIRDS AT KHEECHAN)

यदि आप पक्षी-प्रेमी हैं या परिंदों की सत्ता में आपका यकीन है तो जोधपुर राजस्थान के एक छोटे से गाँव खीचन की यात्रा आपके लिए किसी तीर्थस्थल से कम महत्वपूर्ण नहीं साबित होगी।

खीचन गाँव का चुग्गाघर 
फलौदी नगर से चार किलोमीटर दूरी पर बसे खीचन में कोई  दो सौ घर होंगे,जिनमें से अधिकतर जैन समुदाय के हैं। इस नामालूम से लगने वाले गाँव की विशेषता यह है कि सुदूर मंगोलिया से उड़कर आने वाले हजारों demoiselle crane या कुरजा पक्षियों से इसका दो सौ साल से भी पुराना रिश्ता है।
सुदूर प्रदेश से उड़कर आते कुरजा
ये पक्षी इस धरती के जीवन एवं यहाँ की संस्कृति में इस कदर रच-बस गए हैं कि इनके बगैर यहाँ अब जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल होगा।

कुतुबनुमा

खीचन नागौर से फलौदी जाने वाली सड़क पर स्थित है। ट्रेन द्वारा खीचन पहुँचने के लिए आप जयपुर से रात में चलने वाली जैसलमर की गाड़ी ले सकते हैं जो सुबह दस बजे आपको फलौदी पहुंचा देगी। आधा दिन खीचन में गुजारने के बाद आप आगे जोधपुर या जैसलमर के लिए रवाना हो सकते हैं। खीचन में रात में ठहरने की व्यवस्था नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर आपको किसी गाँव वाले के घर में ही रहना होगा। फलौदी में एक हेरिटेज होटल लाल निवास है जो कुछ महंगा है। इसके बारे में आप नेट पर देख सकते हैं। इसके अलावा फलौदी में मामूली होटल या धर्मशालाएँ हैं।  
कुरजा एक खूबसूरत पक्षी है जो सर्दियों में ब्लैक समुद्र से लेकर मंगोलिया तक फैले प्रदेश से हिमालय की ऊंचाइयों को पार करता हुआ हमारे देश में आता है और सारी  सर्दियाँ हमारे मैदानों और तालाबों  के करीब गुजारने के बाद वापस अपने मूल देश में लौट जाता है। अपने लंबे सफर के दौरान यह 5 से 8 किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ता है। कहा जाता है कि राजस्थान में हर साल लगभग 50 स्थानों पर कुरजा पक्षी उतरते हैं, लेकिन इनकी सबसे बड़ी संख्या खीचन में ही दिखाई देती है।

मज़े की बात यह है कि कुरजा पक्षी अपने अंडे और बच्चे  सुदूर देश मंगोलिया में देता है । 

आकाश से उतरता कुरजा 
यहाँ के निवासी खीचन को इस पक्षी का मायका मानते हैं जहां से वह अपने घर लौट जाता है। कुरजों से खीचन गाँव का अटूट सांस्कृतिक संबंध देखते ही बनता है। यहाँ के भित्ति चित्रों, यहाँ की गलियों और यहाँ के लोकगीतों तक में कुरजा पक्षी समाया मिलेगा --
 कुरजा ए म्हारों भँवर मिला दिज्यों  जी .....


निस्संदेह इन गाँव वालों के लिए इन पक्षियों का हर साल लौटकर आना किसी नववधू के मायके में लौटने से कम उल्लासपूर्ण नहीं होता। इस इलाके में रहने वाले शाकाहारी जैन, राजपुरोहित एवं बिश्नोई परिवारों में पक्षियों, वृक्षों और जीवों की रक्षा करने और उन्हें अपने परिवार की तरह पालने की एक पुरानी परंपरा है। . सितम्बर के पहले सप्ताह में पक्षी गाँव में उतरने शुरू हो जाते हैं और सारे मेहमानों के पहुँचने तक इनकी संख्या नौ से ग्यारह हज़ार तक पहुँच जाती है.
जलाशयों के पास गाँव में फैले पक्षी 
अगस्त के अंत में गाँव पहुँचने पर कुरजों का झुंड पहले स्वागत की मुद्रा में पूरे गाँव का चक्कर लगाता है और मार्च के अंत में जब वापस उड़ने का समय आता है तो उससे दो दिन पहले से ही ये पक्षी गाँव के चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं, जिसे देखकर गाँव वाले सहज ही इनकी विदाई वेला के लिए तैयार हो जाते हैं।
गाँव के चक्कर काटते पक्षी
निश्चय ही पक्षियों का यह झुंड बार बार खीचन के प्यार और यहाँ के गाँव वालों के सत्कार के तहत फिर फिर लौटकर आता है। इस परंपरा की शुरुआत कब हुई किसी को नहीं मालूम। लेकिन यह सिलसिला 200 वर्ष या इससे भी पहले से चल रहा है। कहा यही जाता है कि पहले कुछ सामान्य जैन और राजपुरोहित परिवारों ने एक दो दर्जन प्रवासी पक्षियों को दाना खिलना शुरू किया था। फिर धीरे धीरे गाँव के दूसरे लोग भी इसमें जुड़ते गए और इस दौरान पक्षियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। महत्वपूर्ण यह है कि खीचन के निवासी इन पक्षियों के आने और अपने निजी जीवन की खुशहली के बीच सीधा रिश्ता समझते हैं और इसीलिए स्वयं भूखे रहने के बावजूद  पक्षियों को दाना खिलना इन्हें ज़रूरी लगता है। कुछ इसी तरह जैसे बिशनोई माताएँ श्याम मृग के लावारिस बच्चों को अपनी छाती का दूध पिलाने में भी नहीं सकुचती। आज हजारों की संख्या में कुरजा पक्षी खीचन में उतरते हैं और अब तो इन्हें दाना देने के लिए मारवाड़ क्रेन फ़ाउंडेशन जैसे कई ट्रस्ट भी बन गए हैं। हर शाम लगभग एक टन ज्वार चुग्गाघर के मैदान में इन पक्षियों के लिए फैलाया जाता है।  
दाना फैलाते सेवाराम
कुरजा पक्षियों के झुंड रात में खीचन से दूर खेतों में सोने के लिए चले जाते है। फिर सुबह तड़के ये पहले खीचन के मैदानों में उतरते हैं, फिर धीरे धीरे  चुग्गाघर की ओर उड़ते या चलते हुए आते हैं और कुछ ही देर में पूरा चुग्गाघर इन पक्षियों से भर जाता है।
चुग्गाघर में आते पक्षी
दोपहर से पहले ही ये पक्षी खीचन के दो तीन तालाबों के आस-पास फैल जाते हैं  और शाम के ढलने के साथ ही
गाँव में फैले पक्षी
इन्हें आकाश में उड़कर अपने सुदूर खेतों की ओर जाते देखा जा सकता है।
आकाश में उड़ते पक्षी
खीचन को पर्यावरण की एक अनोखी मिसाल बनाने में  खीचन के बहुत सारे स्थानीय व्यक्तित्वों की अहम भूमिका रही है। प्रकाश टाटिया एवं मालू परिवार  का उल्लेख खास रूप से किया जा सकता है। रतनलाल मालू जिन्हें कई संस्थाओं से विभिन्न सम्मान मिल चुके हैं, दो वर्ष पहले अपनी मृत्यु तक लगातार इन पक्षियों के लिए काम करते रहे। उनके बाद अब सेवाराम का परिवार इस काम में जुटा हुआ है। दुरभिसंधि यह है कि जिन पक्षियों के कारण खीचन का नाम देश विदेश पहुँच चुका है, वही आर्थिक रूप से इस गाँव को कुछ नहीं देते। बल्कि सबसे बड़ी चुनौती इन पंछियों के आगमन को व्यावसायिकता से बचाने की है। कुछ साल पहले कुछ ठेकेदारों ने यहाँ एक होटल  बनाने की योजना बनाई थी और इसके टेंडर भी पास हो गए थे। लेकिन सेवाराम और उनके साथियों के अथक प्रयत्नों से ही होटल की योजना रद्द हुई। अब उनकी लड़ाई पक्षियों के उड़ान क्षेत्र से हाइटेंशन टावर हटाने की है। इन तारों के कारण अक्सर पक्षी घायल हो जाते हैं या मर जाते हैं। घायल पक्षियों को रखने के लिए भी सेवाराम ने एक अलग कमरा बनवाया है।
घायल कुरजा
सुदूर देशों से खीचन में हजारों पक्षियों का हर साल आना पर्यावरण की एक अनोखी वारदात है। खीचन ने सारे विश्व को दिखा दिया है कि पंछी कैसे आते हैं। लेकिन इंसान की फितरत है कि वह प्रकृति की हर सुंदरता में व्यावसायिकता ढूंढ निकालने का हुनर जानता है। आने वाले वर्षों में खीचन के वफादार पक्षियों के लिए सबसे बड़ा खतरा इसी वर्ग के लोगों से है। 
खीचन से
  जितेंद्र भाटिया 

Friday, April 5, 2013

सफरनामे अछूती वादियों के !


अछूती वादियों के सफरनामे! यह दुनिया जिस तेज़ी से कांक्रीट के जंगल में तब्दील होती चली जा रही है, वहाँ मुमकिन है कि आने वाले दिनों में आपके लिए खुलकर सांस लेने की मुकम्मल जगह भी बाकी न बचे। देश विदेश की सचित्र एवं अनूठी यात्राओं को समर्पित यह ब्लॉग आपको दुनिया की उन अनछुई वादियों में ले चलेगा जहां प्रकृति का वर्चस्व अब भी कायम है, जहां हवा जहरीले धुएँ से मुक्त है और इंसान जहां आज भी पेड़-पौधों, जीवों, पक्षियों और तितलियों के साथ मिलकर जीने की विरासत को भूला नहीं है। प्रकृति के समानान्तर चली आ रही इंसान की सांझी संस्कृति  इस सृष्टि की सबसे बड़ी नेमत ही नहीं, इसके निरंतर बचे रहने का एकमात्र विकल्प भी है।


हमारी कोशिश रहेगी कि हम शब्दों और चित्रों के माध्याम से आपको इस अछूती दुनिया की एक जीती जागती अंतरंग तस्वीर पेश कर सकें। जहां चित्र स्वयं अपनी बात कहते हों, वहाँ हम शब्दों से परहेज करेंगे। लेकिन हम एक मूक श्रोता की तरह सिर्फ देखेंगे और समझेंगे ही नहीं, सवाल भी उठाएंगे। इस ब्लॉग के संयोजक के रूप में मैं चाहूँगा की मेरे अलावा मेरे साथियों  के सफरनामे और उनके चित्र भी यहाँ जगह पा सकें।  इसके अलावा हम विदेशों के कुछ खास सफरनामों के अनुवाद भी समय समय पर प्रस्तुत करते रहेंगे। अपने सभी लेखक मित्रों को भी हम 'सफरनामे' से जुड़ने का खुला निमंत्रण देते हैं। आपके सहयोग से यह योजना समृद्ध होगी। 

पहली कड़ी में आप पढ़ेंगे: 'पंछी ऐसे आते हैं --खीचन'
 








जितेंद्र भाटिया