Thursday, October 29, 2015

सभ्यता के आखिरी मुकाम पर जीवन!--स्वीडन!! (SWEDEN-AN INDIAN PERSPECTIVE)

गोथेनबर्ग का पुल 

स्वीडन की खुशहाल धरती पर कदम रखते हुए दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क से ज़्यादा साहिर का वो पुराना गीत याद आता है --


इन  काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा 
जब अम्बर झूमके नाचेगा  जब धरती  नग्मे जाएगी 
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की खातिर जुग  जुग  से  हम सब मर मरकर जीते हैं 
जिस सुबह के अमृत  की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं 
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो  करम फरमाएगी 
वो सुबह कभी तो आएगी 
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों में  धूल न फांकेगा 
मासूम लड़कपन  जब गंदी  गलियों में भीख न मांगेगा 
हक़  मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जायेगी  
वो सुबह कभी तो आएगी  .... 
वो सुबह कभी तो आएगी  ....



दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के हत्यारों वाले देश में यह गीत अब उम्मीद की अपेक्षा हताशा को जन्म देता है. लेकिन स्कैंडेनेविया की धरती पर पता नहीं क्यों, इस असंभव सपने में एक बार फिर भरोसा रखने को जी चाहता है. हालाँकि सपने का सच हो जाना एक तरह से उसके सम्मोहन का टूट जाना भी है. यह खूबसूरत सपना किन्हीं उम्मीदों के साथ साथ सभ्यता की अनेकानेक विचलित कर देने वाली तस्वीरें भी दिखता है, जिन्हें देखते हुए सवाल करने का मन होता है कि  अगर यही हमारी सभ्यता का निष्कर्ष है तो फिर किसी गुमगश्ता जन्नत की तलाश के लिए  यह सारा तामझाम किस लिए? स्वीडन आज पराकाष्ठा की ऐसी ही किसी सुबह के मोड़ पर खड़ा दिखाई देता है. फैज़ के शब्दों में कहें तो --

गरचे  वाकिफ  हैं  निगाहें  कि ये सब धोखा  है 
यां  कोई  मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं  
जिसके परदे में मेरा माह-ए-रवाँ डूब सके 
तुमसे चलती रहे ये राह यूँ ही अच्छा है 
तुमने मुड़के भी न देखा तो कोई  बात नहीं! 

अमरीका ने हालाँकि नुमाइश के तौर पर एक अश्वेत को राष्ट्रपति चुना है और इंग्लैंड में कालों और भूरों ने वहां की अर्थव्यवस्था को अपने कन्धों पर उठा रक्खा है लेकिन श्वेतों और अश्वेतों के बीच का एक महीन फर्क आपको वहां कदम कदम पर दिखाई दे जाएगा. काले वे हैं जो रात के समय अँधेरी गलियों में लोगों को चाक़ू दिखाकर उनका बटुआ छीन लेते हैं. वे टैक्सियां चलाते और मज़दूरी करते हैं. उनकी बस्तियां या उनके घेट्टो मुक़र्रर हैं. दफ्तर के बाहर या शाम के समय गोरे  उनसे मिलना पसंद नहीं करते. हमारे अपने देश में तो गोरों के प्रति हीनता का भाव और कालों या  'हब्शियों ' के प्रति रंगभेद की भावना और भी अधिक है. हमारा जातिवाद पश्चिमी मुल्कों से कहीं अधिक भयानक है. उसपर तुर्रा यह कि हम अपने आपको एक अत्यंत उदार संस्कृति या धर्म का दर्ज़ा देते हैं. जबकि हकीकत में हमसे अधिक असहिष्णु कौम शायद ही कहीं होगी. पिछले दिनों दिल्ली में अफ्रीकों की एक बस्ती में हमला बोल वहां की औरतों पर वेश्यावृत्ति का आरोप लगाया गया था. हम सब आज रंग भेद  और जाति से चालित समाज में जी रहे हैं. समानता के तमाम लिखित-अलिखित  कानूनों के बावजूद हमारे यहाँ इंसान और इंसान के बीच भारी फर्क बरता जाता है.

मेरी समझ में दुनिया के किसी भी मुल्क से अधिक स्कैंडिनेविया/ स्वीडन में चमड़ी के रंग और उस रंग से जुड़ा भेदभाव नहीं के बराबर है. यहाँ सभ्यता ने सारी समृद्धता के  बावजूद अपना आपा नहीं  खोया है.  यहाँ सड़क पर आधुनिक मोटरगाड़ियों के साथ-साथ पैदल  और साइकिल चलाने वालों के लिए भी बराबर की जगह  है . धूप  निकलते ही यहाँ गली-चौराहों पर उत्सव का सा माहौल उतर आता है. बूढ़ों और बच्चों को यहां  एक जैसी वरीयता प्राप्त है. यहाँ की अनगिनत झीलों में निर्मल  ठंडा जल है जिसे दूषित करने वाला कोई नहीं है.  घने जंगलों से यहाँ हर साल बेहिसाब लकड़ी काटी  जाती है लेकिन उससे भी तेज़  रफ़्तार से यहाँ  नए जंगल  उग आते हैं. यहाँ धरती अपने सर्द मौसम  के बावजूद  जितना कुछ देती है, उससे कहीं अधिक यहां के लोग उसे लौटा देते हैं. यहाँ हर चीज़ में आधुनिकता के साथ साथ एक सहजता भी लगातार बरकरार है. बोतलबंद पानी को यहाँ हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है. छोटे  से छोटे होटल के कमरों में भी यहाँ आपको सन्देश लिखा मिल जाएगा--हमें अपने पानी पर गर्व है, आप पूरी सुरक्षा के साथ यहाँ नल  का पानी पी सकते हैं!

खुले चौराहे पर दक्षिणी अमेरिका के आंचलिक संगीत से लोगों का मनोरंजन करते बोलीविया मूल के फेरीवाले 

शायद आने वाले दिनों में यह सरज़मीन सही अर्थों में एक वैश्विक समाज बन जाए. यूरोप इन दिनों शरणार्थियों की गंभीर समस्या से जूझ  रहा है. स्वीडन ने कई दूसरे मुल्कों से आगे निकालकर एक लाख या शायद इससे भी अधिक शरणार्थियों को अपने देश में लेना स्वीकार किया है. लेकिन इस कदम को सिर्फ मानवधर्म का ही उदाहरण न समझा जाये. इसके पीछे कई निहित स्वार्थ भी हैं.  स्वीडेन आज बूढ़ों का देश है. यहाँ देश के विभिन्न महकमों में काम करने के लिए नौजवानों की ज़रूरत है. आने वाले दिनों में शरणार्थी निस्संदेह इस कमी को पूरा करेंगे. लेकिन यह स्वीडन में ही संभव हो सकता था कि जिस जगह सीरिया के मुसलमान शरणार्थियों को ठहराया गया, उसके सामने एक पुरानी सेमेट्री थी. अधिकारियों ने शरणार्थियों की भावनाओं का सम्मान करने और उन्हें सद्भाव का सन्देश देने के लिए वहां से सारे क्रॉस हटा दिए. सोचिये, किसी हिन्दू प्रदेश में यदि क्रॉस की जगह त्रिशूल होते और उन्हें हटाने की बात उठती तो वहां क्या हश्र हुआ होता?
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स्वीडन के हवाई अड्डों में लंदन हीथ्रो, फ़्रैंकफर्ट या पेरिस ओर्ली जैसी गहमागहमी नहीं मिलेगी. यहां आपको उड़ान भरने के इंतज़ार में खड़े हवाई जहाज़ों की लम्बी कतार भी नहीं  दिखेगी.  गोथेनबर्ग में उतरते  ही वहां के वैश्विक जातिविहीन समाज की एक झलक मिलनी शुरू हो जाती है. इमिग्रेशन के इकलौते काउंटर पर  सभी देशों के नागरिक  बिना कोई लैंडिंग फॉर्म भरे जल्दी से गुज़र जाते हैं. देशों और प्रदेशों के आधार पर यहाँ वीसा के लिए लोगों को अलग कतारों में बांटा नहीं जाता. दरअसल इस देश में मशीनों ने क्लर्कों का अधिकाँश काम सीख लिया है. कुल डेढ़ करोड़ जनसंख्या  वाले  मुल्क में ऐसा करने के ठोस  कारण भी  हैं.  और आने वाले मेहमान के लिए यह सुविधाजनक है कि स्वीडिश के बोलबाले के  बावजूद यहाँ के अधिकांश नागरिक अंग्रेजी बोलते और समझते  हैं.

गोथेनबर्ग स्वीडन का दूसरे  नंबर का शहर और वहां की औद्योगिक गतिविधियों का केंद्र है. यह वॉल्वो कार का शहर और कई दूसरी कंपनियों का जन्मस्थल भी है.  लेकिन उद्योग की तमाम व्यावसायिकता के बावजूद यह किसी छोटे शहर की आत्मीयता से भी भरा हुआ है.यह शहर अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए भी उतना ही प्रसिद्ध है.

गोथेनबर्ग का प्रसिद्ध ओपेरा गृह 

गोथेनबर्ग के बंदरगाह पर बने ओपेरा गृह के बाहर स्वीडन के सबसे बड़े संगीतकार, गीतकार और गायक एवर्ट टौबे की प्रतिमा इस देश की ज्वलंत वैश्विक,  फासीवाद विरोधी और मुक्त  परंपरा का सही प्रतिनिधित्व करती है. टौबे ने पिछली शताब्दी में फासीवाद के  विरुद्ध सबसे सशक्त गीत लिखे और गाए थे और उन्हीें के बूते पर दक्षिणी अमेरिका के लोक संगीत ने स्वीडन में अपनी जगह बनायी थी. उन्होंने विश्व भर से नाविकों के गीतों का एक बड़ा संकलन बनाया. उनका बहुत सा समय श्रीलंका और अर्जेंटीना में गुज़रा. आज उनके गीत बच्चे बच्चे की ज़बान पर हैं और स्वीडन में लगभग हर शहर के सार्वजानिक स्थलों पर टौबे की जीवंत प्रतिमाएं दिखाई दे जाएंगी. अभी हाल ही में देश ने अपने 50  क्रोनर के नोट पर पुराने  बादशाह गुस्टॉफ़ की जगह टौबे के चित्र को स्थान देना तय किया है. क्या हमारे देश में किसी संगीतकार का  इतना सम्मान संभव है?

गोथेनबर्ग बंदरगाह पर एवर्ट टौबे की प्रतिमा 

तीन ओर से स्वीडन को घेरे हुए फैला समुद्र अपेक्षाकृत  शांत और उथला है जिसमें असंख्य छोटे छोटे द्वीप बसे हैं. गोथेनबर्ग के इर्दगिर्द फैले इन द्वीपों में से आधिकांश  के बीच नौकाएं चलती हैं. शहर के भीतर सड़कों पर बिजली से चलने वाली ट्रामों  का जाल  फैला है . इसके अलावा कहीं कहीं बसें भी दिख जाती हैं. शहरों की 80 से 90 प्रतिशत जनता इन्हीं सार्वजानिक साधनों  का उपयोग करती है. टैक्सियां बेहिसाब महंगी हैं और मुख्य शहरों के भीतर एकतरफा रास्तों और पार्किंग की भयानक किल्लत के चलते यहाँ सड़कों पर बहुत कम निजी वाहन दिखाई देंगे. आधिकांश नागरिक सार्वजनिक साधनों या अपनी साईकिलों का इस्तेमाल करते हैं और इसी कारण  शहर की सड़कों पर प्रदूषण का नामोनिशान नहीं मिलेगा.

गोथेनबर्ग में ट्राम 

 रुपये के अवमूल्यन के चलते स्वीडन में हिन्दुस्तानियों को हर चीज़ बेतरह महंगी नज़र आयेगी. लेकिन उनकी  अपनी अर्थव्यवस्था में बीस क्रोनर की खरीददारी की लागत लगभग दस रुपयों से अधिक नहीं होगी, जबकि  वास्तविक परिवर्तन में बीस क्रोनर का नोट हमारे एक सौ साठ रुपयों के बराबर है. वहाँ पहुँचने के कुछ समय बाद ही हमें मानसिक  भाग-गुणा  की इस हिन्दुस्तानी सुलभ कवायत छोड़कर क्रोनर में सोचने की महँगी आदत डालनी  पड़ी. वर्ना  वहां जीना  ही मुहाल  हो जाता.

ट्राम के टर्मिनस पर बनी दुकान से हमने चौबीस घंटों के पास खरीदे जिसके बाद इस अवधि के लिए किसी भी ट्राम, बस या  नौका पर बेरोकटोक सफर किया जा सकता था. छुट्टे दुकानदारों द्वारा स्वीकृत किये जाने वाले नकद पैसे के अलावा पूरा स्वीडन आज लगभग कागज़ या नोट रहित समाज है. सार्वजानिक  वाहनों के इकलौते ड्राईवरों (कंडक्टर नाम की चिड़िया का वहां कोई अस्तित्व नहीं है) के पास नकद लेने या देने का कोई प्रावधान ही नहीं  होता. ट्राम के दरवाज़े पर लगे छोटे से कंप्यूटर को अपना पास दिखाकर आप भीतर बैठ सकते हैं. इसका एकमात्र अपवाद स्टॉकहोल्म स्टेशन पर देखने को मिला जहाँ एक  सरकारी ख़ज़ांची पेशाबघर  के दरवाज़े पर घुसने के लिए बीस क्रोनर का दाम वसूल करने के लिए बैठा था. सहूलियत थी तो सिर्फ यह कि मूत्र-विसर्जन के इस खर्च की अदायगी आप क्रेडिट कार्ड द्वारा भी कर सकते थे और हमनें देखा कि कुछ जापानी पर्यटक ऐसा कर भी रहे थे! हमारे मन में सहज ही  सवाल उठा  कि काश हिन्दुस्तान में अनधिकृत सार्वजानिक स्थलों को  गंदा करके वालों  से भी इसी तरह  का कोई  ज़ोरदार टैक्स  वसूला  जा  सकता.

गोथेनबर्ग से जाने वाली नौकाओं की जेटी 

 स्वीडन के आसपास के समुद्र में बसे द्वीपों की यात्रा यहाँ की छुट्टियों का एक अनिवार्य शगल है. गोथेनबर्ग के आस पास ही लगभग बीस द्वीपों का समूह है. इनमें से अधिकाँश पर नाव द्वारा जाया जा सकता है. अलग अलग दिशाओं में जाने वाली ये नावें यहाँ के सार्वजानिक यातायात का ही एक हिस्सा हैं और इनके लिए  अलग से टिकट लेने की ज़रुरत नहीं है. कुछ द्वीपों पर कार ले जाना वर्जित है तो कुछ पर साइकिल के रास्तों के अलावा बड़ी सड़कें भी हैं. अधिकाँश द्वीप अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाने जाते हैं और गर्मियों में तो इनमें से कुछ पर अच्छी खासी भीड़ हो जाती है. कुछ से आपको शहर का सुन्दर नज़ारा दिख जाएगा। कुछ द्वीपों पर आपको कई  शताब्दियों पुरानी बस्तियां भी मिल  जाएंगी जिन्हें विशेष योजना के तहत  फिर से रहने योग्य बनाया गया है.

मर्स्ट्रांड  द्वीप से गोथेनबर्ग के निकटवर्ती गाँवों का दृश्य 

गोथेनबर्ग के द्वीप समूह 

कार्लस्टेन का किला 

मर्स्ट्रांड जैसे कुछ द्वीपों पर स्वीडन का पुराना इतिहास आज भी ज़िंदा है. यहाँ कार्लस्टेन का पुराना किला है जो किसी ज़माने में यूरोप का एक कुख्यात बंदीगृह था. इसे ज्योँ का त्यों  सुरक्षित रक्खा गया है.  सामंती काल में तमाम दूसरे देशों की तरह स्वीडन का  इतिहास  भी युद्धों और रक्तगाथाओं से भरा  हुआ था. महत्वपूर्ण यह है कि इतिहास को सुरक्षित रहते हुए भी यह देश आज जीवन के सर्वथा अलग  सिद्धांतों पर खड़ा है.  लेकिन ये सिद्धांत क्या सुख और संतोष के पर्याय हैं ? इस सवाल का उत्तर देना उस समय मुश्किल हो जाता है जब हम गौर करते हैं कि विवाहितों  के बीच स्वीडन में तलाक की घटनाएं दुनिया में सबसे अधिक  हैं. यहाँ लगभग हर दूसरा विवाहित व्यक्ति किसी न किसी  समय तलाक या सम्बन्ध विच्छेद की प्रक्रिया से  गुज़र चुका है. हम हिन्दुस्तानी इस पर आँख-भौंह सिकोड़ सकते हैं. लेकिन वहां कई लोग इसे स्वतंत्रता और मुक्ति का ही एक विस्तार मानते हैं. उनके अनुसार तलाक के बाद यहाँ अधिकांश लोग दुबारा शादी नहीं करते क्योंकि उनके पास अकेले रहने के पर्याप्त साधन और कारण होते हैं. वे कहते हैं कि विवाह की संस्था यूं भी पुरानी पड़  चुकी है और आने वाले  दिनों में इसके किसी पुरानी रीत में बदलने की पूरी संभावना है. जो भी हो, 42 वर्ष की औसत उम्र वाले इस बूढ़े  देश में बुज़ुर्गों का विशेष ख्याल रक्खा जाता है और उन्हें अकेले  या अपने साथी के साथ शेष जीवन गुज़ारने  में कोई परेशानी नहीं होती. तलाक का पक्ष लेने वाले यह भी कहते हैं कि इसके नैतिक पक्ष पर गौर करने का ख़याल  दकियानूसी है. देखा जाए तो स्वीडन में आत्महत्याओं की लगभग शून्य वारदातें संकेत देती हैं कि  यहाँ जीवन में  तनाव नहीं है और देखा जाए तो यही  जीवन में सुख की अधिक  प्रामाणिक  कसौटी है.
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मौसम अच्छा हो तो स्वीडन के नागरिक खुले में खाना पसंद करते हैं 

स्वीडन के भोजन के बारे में हम कई तरह की गलतफहमियां सुन चुके थे.  इन सबका सार यही था कि स्कैंडेनेविया में लोग कच्चा भोजन और मांस अधिक खाते हैं और यहाँ जापान पद्धति के कच्ची मछली के  sushi  जैसे व्यंजन आपको हर जगह मिल जाएंगे. लेकिन हमें स्वीडन के कई शहरों में भोजन करते हुए यह सुखद अहसास हुआ कि वैश्विक संस्कृति  के समानांतर यहाँ का खाना कई पद्धतियों का इस हद तक समन्वय है कि  उसमें से स्वीडिश और बाहर के खाने को अलग अलग खानों में बांटना असंभव होगा. गोथेनबर्ग के एक स्वीडिश रेस्त्रां 'भोगा' में हमें बेहतरीन शाकाहारी भोजन मिला. यहाँ स्वाद जितना ही महत्त्व उसे प्लेट में सजाकर परोसने पर था. एक अन्य रेस्त्रां में हमें भोजन में स्वीडिश के साथ साथ थाई और कुछ भारतीय भोजन का मिला जुला सा स्वाद मिला. बाद में हमारी मुलाकात उस रेस्त्रां के रसोइये से हुई तो पता चला कि वह सिंगापुर से आया एक हिन्दुस्तानी था.

 पैलेस रेस्त्रां के लाजवाब शेफ-- भारतीय मूल के दोरईस्वामी  

पेरिस की तरह स्वीडन में भी खुली बालकनियों और फुटपाथों पर फैले रेस्त्राओं का रिवाज है जहाँ सर्दी बढ़ जाने पर गर्मी फैलाने वाले गैस के हंडे भी खम्भों पर लगे मिलते हैं. हमने यहाँ सेबों से बनने वाली शराब साइडर का भरपूर आनंद लिया. यह एक तरह से स्कैंडेनेविया का राष्ट्रीय पेय है जो ड्राफ्ट बियर की तरह हर रेस्त्रां में सीधा नल से से निकालकर गिलास में भरा जाता है. स्वीडन के पारम्परिक खाने में 'पोर्क', मछली/झींगे और आलुओं की बहुतायत रहती है, लेकिन अब शहरों में ही नहीं बल्कि छोटी जगहों पर भी आपको वैश्विक स्वाद वाला भोजन मिल जाएगा. जहां एक तरफ यहां हिन्दुस्तानी के साथ-साथ थाई स्वाद का खाना लोकप्रिय है, वहीं हमें पता चला कि  माल्मो शहर अन्य चीज़ों के अलावा अपने रोटी  पर परोसे गए सलाद और दाल के पकौड़ों (अरबी डिश 'फलाफल') के लिए भी विख्यात है. हम भारतीयों के लिए यह भोजन का सबसे आसान, अच्छा और सस्ता विकल्प था.

फुटपाथों पर फैले रेस्त्रां जहाँ पीछे  गर्मी फैलाने वाले हंडे लगे हैं  

माल्मो स्वीडन का तीसरे नंबर का शहर है और डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन से सटा होने के कारण यहाँ आपको  पर्यटकों की संख्या कहीं अधिक दिखाई देगी. यह स्वीडन का सबसे कॉस्मोपॉलिटन शहर है जहाँ की एक तिहाई से अधिक जनसंख्या विदेशी है. माल्मो में एक और विशेषता यह है कि यहां आपको आलीशान पुरानी इमारतों के साथ साथ बिलकुल आधुनिक स्काइस्क्रैपर भी मिल जाएंगे.  इनमें स्कैंडेनेविया की सबसे ऊंची इमारत 'Turning Torso' भी शामिल है, जिसकी गिनती दुनिया की सबसे अद्भुत इमारतों में की जाती है. आप लगभग 4000 रुपयों का महँगा टिकट खरीदकर इसकी सबसे ऊंची मंज़िल तक भी जा सकते हैं.

माल्मो का प्रसिद्ध 190 मीटर ऊंचा टावर 'Turning Torso'    

माल्मो: सदियों पुरानी इमारतों और आधुनिक अट्टालिकाओं का सह-अस्तित्व 

माल्मो में एक तरफ जहाँ पारम्परिक इमारतें, खूबसूरत चौक और रेस्त्राओं के खुले बारामदे हैं, वहीं मुख्य शहर में पैदल चलने के लिए बने बहुत सारे रास्ते हैं. कार से भी अधिक साइकिल यहाँ का सबसे लोकप्रिय साधन है. आधुनिक 7 या उससे भी अधिक गियर वाली साइकिलें किराए पर देने वाली यहां कई बड़ी कम्पनियाँ हैं जो ग्राहकों को कारों की तरह साइकिल को एक जगह से किराए पर लेकर उसे अपने गंतव्य स्थान पर छोड़ देने की सुविधा देती हैं. ज़ाहिर है कि  प्रदूषण को काम रखने में इन साइकिलों का महत्वपूर्ण योगदान है.

माल्मो में पारम्परिक इमारतों के बीच साइकिलों की भरमार    

 माल्मो के रास्तों पर आपको दुनिया के हर भाग से आने वाले पर्यटक मिल जाएंगे. हमारे लिए यह जानना दिलचस्प था रेस्त्राओं, दुकानों, सार्वजानिक यातायात के ड्राइवरों और दफ्तरों के फ्रंट ऑफिसों में काम करने वाले अधिकाँश कर्मचारी स्वीडिश मूल के नहीं हैं.  इन सारे लोगों ने वर्षों पहले इस देश में आकर इसकी शांतिप्रिय सरज़मीं को अपना लिया था. इसीलिये यहां के लोगों में आपको राष्ट्रवाद तो मिलेगा लेकिन कट्टरता नहीं! और यही शायद इनकी गर्मजोशी और आत्मीयता का भी मूल कारण है. निस्संदेह यह समाज धीरे धीरे एक ऐसी वैश्विक पहचान की और बढ़ रहा है जहाँ दिलों और दिलों के बीच के फासले आने वाले समय में और भी कम हो जाएंगे.

माल्मो: सदियों पुरानी इमारतों तले फैले खुले बार और रेस्त्रां   .

माल्मो: पैदल चलने वालों के  लिए बने शहर के रास्ते  

माल्मो शहर की बुनावट में सबसे खूबसूरत बात यह है कि बाज़ार और रेस्त्राओं के बीच से चलते हुए अचानक आप अपने आपको प्रकृति के बहुत करीब किसी बहुत बड़े पार्क के बीचोंबीच पाएंगे.  पतझड़ का मौसम वह समय है जब सर्दियों के पक्षी दक्षिण के गर्म प्रदेशों की ओर अपनी सालाना उड़ान भरना शुरू करते हैं. इसी के चलते उत्तरी ध्रुव और अंटार्कटिका के पक्षी इस मौसम में दक्षिणी स्वीडन और यूरोप में देखे जा सकते हैं. माल्मो के एक पार्क के तालाब में हमें ध्रुवी प्रदेश की बार्नेकल बत्तखों का एक झुण्ड मिला जो अभी हाल ही में उड़कर वहाँ आया था.

उत्तरी ध्रुव क्षेत्र से आने वाली बार्नेकल बत्तखों का जोड़ा 

माल्मो के नज़दीक समुद्रतट में ध्रुवी पक्षी मादा आइडर 

माल्मो से 30 किलोमीटर दूर स्वीडन का सबसे दक्षिणी बिंदु है जहाँ फालस्टरबे में हज़ारों पक्षी अपनी सालाना लम्बी उड़ान के लिए गुज़रते हैं और यह नज़ारा देखने के लिए सैकड़ों पक्षी प्रेमी हर साल यहाँ इकठ्ठा होते हैं. यहाँ के समुद्री जल में आइडर पक्षियों के अलावा खूबसूरत सफ़ेद हंस भी धीमी गति से तैरते हुए दिखाई दे जाएंगे. और हर जगह आपको मिलेंगे छोटे आकार के सफ़ेद आँखों वाले कौवे  jackdaw  जो 'कांव कांव' की जगह चिचियाते रहते हैं और जो सामान्य ढीठ कौवों की अपेक्षा काफी शर्मीले और डरपोक होते हैं. इनके अलावा वहां कई तरह की अबाबीलें हर जगह थीं. 

हमारे कौवे से छोटा सफ़ेद आँखों वाला  jackdaw 

स्कैंडेनेविया में मूर्तिकला अपने चरम विकास पर है. घोड़ों पर सवार शहंशाहों की मूर्तियां तो खैर हर शहर में होती हैं. स्वीडन में भी वहां के सत्रहवीं सदी के शासक कार्ल गुस्टाव  माल्मो के प्रमुख चौक के बीचोंबीच खड़े मिलते  हैं. 

माल्मो मैं कार्ल दशम गुस्टाव की घुड़सवार प्रतिमा के पास पर्यटकों का जमावड़ा  

स्टॉकहोल्म में वहां के शाह की प्रतिमा 

लेकिन शासकों की प्रतिमाओं से कहीं अधिक आकर्षक हैं वहां के पार्कों में लगी जनजीवन से जुडी अनेकानेक खूबसूरत मूर्तियां जो वहां की सभ्यता की सच्ची परिचायक हैं.

गोथेनबर्ग के मछली बाज़ार के बाहर मछली बेचने वालों का एक जीवंत चित्र 

बत्तखों वाला लड़का--माल्मो 

स्टॉकहोल्म में संसद भवन के पास फुटपाथ पर चलते चलते आपकी नज़र अचानक वहां बैठे किसी बेघर व्यक्ति पर ठहर जाएगी. और उस व्यक्ति की संवेदनशील आँखों में ध्यान से झाँकने पर आपको पता चलेगा कि  वह कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक सजीव मूर्ति है--एक लावारिस लोमड़ी की, जो अपनी सारी दुनियावी संपत्ति के साथ एक फटे कम्बल में दुबकी वहां बैठी है!

स्टॉकहोल्म के फुटपाथ पर 'लावारिस लोमड़ी'--लॉरा फोर्ड/मिशेल अलसांदृनि  

इस अनोखी मूर्ति को  लॉरा फोर्ड ने बनाया था और 2008 में इसे स्टॉकहोल्म कोंस्ट संस्था ने ख़रीद लिया. पर सवाल था कि इस अनोखी आकृति को शहर मेँ किस जगह स्थापित किया जाये.  आम लोगों की राय जानने के लिए समाचार पत्र में एक जनमत का आयोजन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप यह लावारिस लोमड़ी आज आपको प्रधानमन्त्री के निवासगृह और संसद के बीच के संभ्रांत फुटपाथ पर निरीह भाव से आपकी ओर देखती मिल जाएगी. लोगों को यह स्मरण दिलाते हुए
कि हम सब बेहद खुशकिस्मत सही लेकिन दुनिया में आज भी लाखों लोग ऐसे हैं जिनके सिर पर न कोई छत है न रहने के लिए कोई घर. किसी अनोखे चमत्कार की तरह यह लावारिस लोमड़ी सहृदयता और मानवता के उस जज़्बे की  प्रतीक है जो आज स्वीडन में लगभग हर नागरिक के दिल में किसी लौ की तरह रौशन दिखाई देता है. यही वे क्षण हैं जब हमें फिर से साहिर के उसी  पुरअसरार गीत का स्मरण आता है …

निस्संदेह स्वीडन में वह सुबह हमसे बहुत पहले आएगी.....
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माल्मो से स्टॉकहोल्म तक फैले अनेकानेक पार्कों में आपको बहुत सारी न्यूड मूर्तियां दिख जाएंगी जिनमें मानव देह का अभिवादन किसी उल्लासमय उत्सव की तरह छलकता दिखाई देता है. आप देर तक इनकी अंदरूनी सुंदरता को निराहते रह जाएंगे. ये कहीं से लेशमात्र भी अश्लील नहीं हैं.... 

माल्मो में पेशाबघर के बाहर सागर कन्या को शंख से रिझाता पुरुष 

ये सारी मूर्तियां सार्वजानिक स्थलों की औपचारिकता को एक झटके से तोड़ आपको चेतना के किसी और ही धरातल  पर ले चलती हैं. 

गुस्ताव पार्क में नहाते बच्चे !

इनमें से  अधिकांश मूर्तियां स्वीडन के प्रसिद्ध मूर्तिकारों द्वारा बनायी गयी हैं और इनमें प्रेम, मित्रता और अंतरंगता की एक अनोखी स्फूर्ति विद्यमान है. 

स्लॉट्सपार्क में गेरहार्ड हेनिंग की प्रसिद्ध  कृति 'अधलेटी लड़की' 

स्टॉकहोल्म के पार्क में वाद्य बजाता पुरुष 

माल्मो शहर से स्टॉकहोल्म की साढ़े पांच घंटों की लम्बी रेल यात्रा स्वीडन को किसी त्रिकोण की कर्ण भुजा की तरह काटती है और हम जंगलों, झीलों और घास के मैदानों से ढंके इस देश को किसी तिलिस्म की तरह  रेल की खिड़की के बाहर खुलता देखते हैं. स्वीडन की लम्बी देहाती सड़कों पर आपको दूर दूर तक कोई बन्दा या वाहन दिखाई नहीं देगा. लेकिन निर्जन स्थलों पर बने शौचालयों में भी आपको फ्लश में पानी और टॉयलेट पेपर सुरक्षित मिल जाएगा. यह भी अपने आपमें एक अजूबा है कि इतने विस्तृत देश को इतने कम लोग कैसे सुचारु   ढंग से  चलाते हैं.

मुंबई की मरीन ड्राइव जैसी ही एक गोलाकार खाड़ी पर बसा स्टॉकहोल्म  दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में गिना जाता है.  दो ओर समुद्र से घिरे स्टॉकहोल्म  के इर्दगिर्द भी गोथेनबर्ग  की तरह द्वीपों के समूह हैं और मुंबई की ही तरह स्टॉकहोल्म के कई हिस्से भी पहले अलग अलग द्वीप थे.

यहाँ से शहर को देखो--स्टॉकहोल्म!


काफ्का के चित्र वाली नोटबुक 

दूसरी राजधानियों की तरह स्टॉकहोल्म में भी सरकारी इमारतों की बहुतायत है और पर्यटकों के लिए यहां कई तयशुदा ठिकाने हैं. शहर के बीचोंबीच  बहुत बड़े बाज़ार का इलाका ड्रोटटनिंगगार्टन है जहां वाहनों के प्रवेश की मनाही है. यहाँ बड़े बड़े स्टोर, थिएटर गृह और रेस्त्रां हैं, जिनके नीचे से आप शहर के मेट्रो स्टेशनों तक पहुँच सकते हैं. यहाँ चल रही भीड़ में इस शहर की बहुराष्ट्रीय पहचान बहुत साफ़ दिखाई दे जाएगी. आप किसी से रास्ता पूछें तो वह बहुत तफ्सील के साथ आपको समझायेगा और अगर उसे वह जगह मालूम नहीं होगी तो वह आपको किसी जानकार के पास ले चलेगा. किताबों की दुकान पर सबसे लोकप्रिय दस पुस्तकों की सूची में चौथे नंबर पर काफ्का की 'नोटबुक' का दिखना एक सुखद आश्चर्य था. हमने समझा कि यह उनकी डायरीज का कोई नया संस्करण है. लेकिन खोलकर देखने पर पता चला कि वह सचमुच की खाली पन्नों वाली नोटबुक ही थी! शायद वहां काफ्का का चित्र और  उनका हस्ताक्षर महज़ बौद्धिकता और समझ के खूबसूरत ब्रांड के रूप में उपस्थित था. उसी श्रृंखला में कई और लेखकों के चित्रों वाली नोटबुकें भी वहां ज़ोर शोर से बिक रही थी!… शहर की गलियों को काटती नहरों पर बने छोटे छोटे  पुलों से आप शहर की ठहरी हुई गति का आनंद ले सकते हैं. नहरों में आपको बत्तखें, अबाबीलें और हंस तैरते दिख जाएंगे.

स्टॉकहोल्म की नहरों के राजहंस!

इन सारी गतिविधियों के बावजूद स्टॉकहोल्म में आपको गहमागहमी कहीं दिखाई नहीं देगी. शाम के समय अंडरग्राउंड मेट्रो ट्रेनें भी यहाँ लंदन या पेरिस की तरह लदी हुई नहीं होती.
स्टॉकहोल्म को कुछ लोग संग्रहालयों का शहर भी कहते हैं. शहर में 80 से भी अधिक विशिष्ट संग्रहालय हैं. हमने अपनी रिहाइश का इंतज़ाम एक छोटे से जहाज़ में किया था जो गर्मियों में बाकायदा क्रूज के लिए यात्रा पर निकलता था और बाकी समय महज़ एक होटल बन जाता था. यहां के पाकिस्तानी मैनेजर ने हमज़बानी का फ़र्ज़ निभाते हुए हमें कुछ कूपन बतौर भेंट दे डाले. वक्त आने पर उसने वहीँ ठहरे एक निहायत चिपकू किस्म के कैथोलिक पादरी से हमारी रक्षा भी की. जब हमने वतन में दोनों मुल्कों के बीच चल रही कड़वी cold war का ज़िक्र किया तो वह हँसकर बोला कि ठंडे परदेस में पहुँचने के बाद ही लोगों को अपनी सांझी विरासत के गर्माहट महसूस होती है !

स्टॉकहोल्म में रात के समय हमारा जहाज़ या कि होटल!

हमारे जहाज़ से कुछ ही आगे मोड़ पर फोटोग्राफी का प्रसिद्ध संग्रहालय 'photografika' था जहाँ  'युद्ध में सोये हुए बच्चे' शीर्षक से रोंगटे खड़े कर देने वाले चित्रों की प्रदर्शनी चल रही थी. शहर में एक बड़ा संग्रहालय स्कैंडेनेविया के इतिहास की जानकारी देता है. एक अन्य म्यूजियम नोबेल और नोबेल पुरस्कार को समर्पित है. लेकिन हमें इन सारे संग्रहालयों से कहीं अधिक विशिष्ट लगा अनोखा 'वासा म्यूजियम' जिसका एक अद्भुत इतिहास है.
सत्रहवीं शताब्दी में  स्वीडन के शहंशाह  गुस्टावुस अदुलफुस ने लुथियानिया  से युद्ध की तैयारी  में  अपने देश में दुनिया के सबसे शक्तिशाली युद्धपोत बनाने का फैसला किया था और इस तरह तीन वर्षों के निर्माण के बाद 1628 में यह पोत 'वासा'  तैयार हुआ था. इस पर कांसे की 64 तोपें लगी थी और शहंशाह की इच्छा के अनुसार इसपर बहुमूल्य धातुओं के प्रतीक चिंन्ह बनाये गए थे. इसमें कुल 300 सिपाही और 145 नाविक  सफर कर सकते थे. एक शानदार समारोह के साथ  'वासा' को स्टॉकहोल्म के बंदरगाह में उतारा गया था. हज़ारों आँखें गर्व से इस भव्य दृश्य को देख  रही थी. लेकिन जहाज़ के वज़न और इसके डिज़ाइन में शायद कोई चूक रह गयी थी. बमुश्किल एक किलोमीटर चलने के बाद ही शहंशाह  को शर्मसार बनाता 'वासा' हज़ारों लोगों की आँखों के सामने समूचा पानी में समा गया था और कोई कुछ नहीं कर पाया था.
इस  ऐतिहासिक घटना के सवा तीन सौ से अधिक सालों के बाद 1961 में स्वीडन   के एक दक्ष इंजीनियर दस्ते ने इस पूरे जहाज़ को  लगभग ज्यों का त्यों  समुद्र की गहराई से बाहर निकालने में सफलता  पायी. फिर  सरकार ने इस जहाज़ के इर्दगिर्द एक म्यूजियम बनाने का फैसला किया और इस योजना को अंजाम देने के लिए उसने  वैश्विक  प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें दुनिया के 384 जाने माने आर्किटेक्टों ने हिस्सा लिया.  

वासा जहाज़ 

 अंततः मारियन दाहलबैक  और गोरान मेंसोन ने इसे जीतकर म्यूजियम बनाने का काम शुरू किया जो आखिरकार 1990 में काम पूरा हुआ. इस म्यूजियम में न सिर्फ जहाज़ बल्कि उसके भीतर से निकलने वाले सारे सामान को भी सुरक्षित रक्खा गया है.  आज वासा म्यूजियम  स्कैंडेनेविया का सबसे लोकप्रिय म्यूजियम है जिसे अबतक लगभग तीन करोड़ लोग देख चुके हैं. आज इसमें कई विभाग हैं और इसे एक तरह से सत्तरहवीं सदी और उस ज़माने की जहाज़रानी पद्धतियों का सबसे मुकम्मल और विस्तृत म्यूजियम माना जाता है. निस्संदेह यह दुनिया में अपनी तरह का अनोखा म्यूजियम है.

वासा म्यूजियम का बेहद सराहा गया बाहरी स्वरूप.

अगली ही दोपहर हम स्वीडन से विदा लेने के लिए स्टॉकहोल्म के पुराने हवाई अड्डे ऑर्लैंडा में थे. इस प्रदेश में गुज़रे पिछले दस बारह दिन को लेकर यूं तो कई सवाल हमारे मन में थे लेकिन सबसे बड़ी दुरभिसन्धि यहाँ के क्रमशः परिष्कृत होते समाज को लेकर थी. जिस तेज़ी से हमारा अपना भारतीय समाज रंग, धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकृत हो रहा है (या करवाया जा रहा है), उसमें स्वीडन जैसी विकसित संस्कृति क्या हमारे लिए कोई सबक या सन्देश लाती है? जब भारतीय परिवेश में एक ओर हम अपने पारिवारिक रिश्तों, भाई-बहन, अपने माता-पिता और अपनी संतानों के प्रति अत्यंत ज़िम्मेदाराना, सहानुभूतिपूर्ण और सहिष्णुपूर्ण रवैया अपनाते हैं, तब समाज तक आते-आते हम इस कदर गैरजिम्मेदार, असहिष्णु और बर्बर क्यों हो जाते हैं? क्यों खिड़की के बाहर बीच सड़क पर अपना कचरा फेंकने से लेकर गोमांस रखने के झूठे शक पर किसी निर्दोष की जान लेने तक किसी भी कदम पर हमारी अंतरात्मा हमें नहीं कचोटती? क्यों अपनी असामाजिकता पर सवाल उठाने का मौलिक अधिकार तक हमसे छिनता चला जा रहा है? देखा जाए तो स्वीडन जैसी संस्कृति में इसका ठीक उलट सच है. यहां निजी पारिवारिक  रिश्ते अपनी आख़िरी सीमा तक अवैयक्तिक और असम्पृक्त बन चुके हैं लेकिन इनके समानांतर समाज क्रमशः पहले से कहीं अधिक ज़िम्मेदार, सहानुभूतिपूर्ण और उदार बनता चला गया है. इस समाज में लोग कोई भी कदम उठाने से पहले दूसरों के बारे में सोचते हैं.
मुझे ख्याल आता है कि इस दुनिया में क्या कोई दिन ऐसा भी आ सकता है जब परिवार और समाज दोनों ही में हमें एक ही जैसी परिपूर्णता, उदारता, और आत्मीयता, एक जैसा सामंजस्य और उजाला दिखाई देने लगे?

मनहूस समाजी ढाँचे  में जब जुर्म न पाले जाएंगे 
जब हाथ  न काटे जाएंगे  जब सर न उछाले  जाएंगे 
वो सुबह कभी तो  आएगी ....

साहिर का वह पुरअसरार गीत शायद ऐसी ही किसी अप्राप्य  जन्नत  या कि  utopia से तआल्लुक़ रखता है.....            









                                                                                                           सर्वाधिकार सुरक्षित 
 जितेन्द्र भाटिया 
jb.envirotekindia@gmail.com  

Saturday, June 22, 2013

जंगल में कविता (BARNAWAPARA WILDLIFE SANCTUARY)

‘’हमने जीप का इंजन बंद कर दिया ...सर्च लाइट भी ...चारों ओर घुप्प अँधेरा ..झींगुरों की आवाजें ...जानवरों की सरसराहटें और जंगल के सांस लेने की आवाजें ..जंगल की सांस कितनी साँसों से मिल कर बनी होती है ..उस अँधेरे में उस घड़ी मुझे पहली बार महसूस हुआ .जीप में सारे लोग जैसे दम साधे बैठे थे ..अपनी सांस को अपनी मुठ्ठी में दबाये ...ऊपर चमकते तारों से भरा आसमान ...यह जंगल का आसमान है जो सिर्फ यहीं देखा जा सकता है ....
कहने को तो सब एक है पर धरती के हर टुकड़े का आसमान अलग जान पड़ता है ....मुझे इस वक्त लद्दाख का नीला आसमान याद आ रहा है .....सब कुछ हमारे आसपास पर कितना दूर ...हवा है जो जंगल की कभी गीली कभी सूखी महक को हमारे पास लाती है ...जो जंगल के सूखे या गीले हिस्से की खबर देती है ....जानवरों की मिली जुली गंध से लबरेज ...मनुष्य के शरीर के सूचना तंत्र की तरह जंगल का सूचना तंत्र भी बड़ा प्रभावी है .एक छोटी सी चिड़िया से लेकर बड़े से बायसन तक ...एक सूत्र में घूमते .’’
‘’अँधेरे में जंगल में खड़े हम बायसन पर सर्च लाइट फेंकते हैं ..उनकी आँखें जलते लैम्पों सी इधर उधर घूमती हैं ....रौशनी की एक दीवार है हमारे बीच में ..इस दीवार के गिरने से हमें भय लगता है ..शायद उनको भी लगता हो .’’ 


‘’जंगल में नेटवर्क नहीं है ..हम मोबाइल हाथ में लिये मारे –मारे फिरते हैं कि किसी तरह किसी को अपने होने की जगह बता दें .भीतर से यह जानते हुए भी कि किसी को न इसकी परवाह है न कोई जानना चाहता है .हम डर भी रहे थे कि कहीं हमको न पता चल जाये कि हम कहाँ हैं ?’’  
कुतुबनुमा  
बारनवापरा अभयारण्य छत्तीसगढ़ में रायपुर के नजदीक स्थित है। महानदी यहाँ से करीब ही बहती है। आप यहाँ रायपुर से दिन की यात्रा पर जा सकते हैं। यदि रात में जंगल का मज़ा लेना हो तो आपको सरकारी रेस्ट हाउस में रुकना होगा। निकटतम रेल्वे स्टेशन महासमुंद पड़ता है।

‘’हम बोगन वेलिया की नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे हैं जबकि आसपास न जाने कितने सूखे वृक्ष पत्ते ,हरियाली और टहनी विहीन खड़े हैं ..हम वहां नहीं जाते..हम एक दुसरे को इतना तन्हा देख नहीं पा रहे .’’

‘’अँधेरे में घोस्ट ट्री चमक रहा है ...उसकी सूनी नंगी-बेतरतीब टहनियां आसमान की ओर उठती हुई ...ये जिनको रास्ता दिखाता होगा ..क्या उनसे अपना भी रास्ता पूछ लेता होगा ?’’

‘’पशुओं की आँखों में जलते दीयों को देखती मै सोचने लगी ...क्या इस रौशनी में मैं एक कविता लिख सकती हूँ ..फिर मुझे हंसी आ गयी ...कविता तो हम अँधेरे में लिखते हैं ..पशुओं के रोंओं के घुप्प आदिम अँधेरों में ...’’

‘’ज़ोर से सांस खींचो तो जंगल भीतर चला आयेगा ...ऐसा मेरे साथ हो चुका है . मेरे घरवाले मुझे खींचते हुए बाहर ले जाते हैं और मैं वहीँ पड़ी रह जाती हूँ ...उसकी साँसों से थरथराती ...’’





                         



                                                                                      
जया जादवानी
सर्वाधिकार सुरक्षित


                                                                                                                            



Saturday, April 6, 2013

पंछी ऐसे आते हैं -- खीचन (BIRDS AT KHEECHAN)

यदि आप पक्षी-प्रेमी हैं या परिंदों की सत्ता में आपका यकीन है तो जोधपुर राजस्थान के एक छोटे से गाँव खीचन की यात्रा आपके लिए किसी तीर्थस्थल से कम महत्वपूर्ण नहीं साबित होगी।

खीचन गाँव का चुग्गाघर 
फलौदी नगर से चार किलोमीटर दूरी पर बसे खीचन में कोई  दो सौ घर होंगे,जिनमें से अधिकतर जैन समुदाय के हैं। इस नामालूम से लगने वाले गाँव की विशेषता यह है कि सुदूर मंगोलिया से उड़कर आने वाले हजारों demoiselle crane या कुरजा पक्षियों से इसका दो सौ साल से भी पुराना रिश्ता है।
सुदूर प्रदेश से उड़कर आते कुरजा
ये पक्षी इस धरती के जीवन एवं यहाँ की संस्कृति में इस कदर रच-बस गए हैं कि इनके बगैर यहाँ अब जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल होगा।

कुतुबनुमा

खीचन नागौर से फलौदी जाने वाली सड़क पर स्थित है। ट्रेन द्वारा खीचन पहुँचने के लिए आप जयपुर से रात में चलने वाली जैसलमर की गाड़ी ले सकते हैं जो सुबह दस बजे आपको फलौदी पहुंचा देगी। आधा दिन खीचन में गुजारने के बाद आप आगे जोधपुर या जैसलमर के लिए रवाना हो सकते हैं। खीचन में रात में ठहरने की व्यवस्था नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर आपको किसी गाँव वाले के घर में ही रहना होगा। फलौदी में एक हेरिटेज होटल लाल निवास है जो कुछ महंगा है। इसके बारे में आप नेट पर देख सकते हैं। इसके अलावा फलौदी में मामूली होटल या धर्मशालाएँ हैं।  
कुरजा एक खूबसूरत पक्षी है जो सर्दियों में ब्लैक समुद्र से लेकर मंगोलिया तक फैले प्रदेश से हिमालय की ऊंचाइयों को पार करता हुआ हमारे देश में आता है और सारी  सर्दियाँ हमारे मैदानों और तालाबों  के करीब गुजारने के बाद वापस अपने मूल देश में लौट जाता है। अपने लंबे सफर के दौरान यह 5 से 8 किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ता है। कहा जाता है कि राजस्थान में हर साल लगभग 50 स्थानों पर कुरजा पक्षी उतरते हैं, लेकिन इनकी सबसे बड़ी संख्या खीचन में ही दिखाई देती है।

मज़े की बात यह है कि कुरजा पक्षी अपने अंडे और बच्चे  सुदूर देश मंगोलिया में देता है । 

आकाश से उतरता कुरजा 
यहाँ के निवासी खीचन को इस पक्षी का मायका मानते हैं जहां से वह अपने घर लौट जाता है। कुरजों से खीचन गाँव का अटूट सांस्कृतिक संबंध देखते ही बनता है। यहाँ के भित्ति चित्रों, यहाँ की गलियों और यहाँ के लोकगीतों तक में कुरजा पक्षी समाया मिलेगा --
 कुरजा ए म्हारों भँवर मिला दिज्यों  जी .....


निस्संदेह इन गाँव वालों के लिए इन पक्षियों का हर साल लौटकर आना किसी नववधू के मायके में लौटने से कम उल्लासपूर्ण नहीं होता। इस इलाके में रहने वाले शाकाहारी जैन, राजपुरोहित एवं बिश्नोई परिवारों में पक्षियों, वृक्षों और जीवों की रक्षा करने और उन्हें अपने परिवार की तरह पालने की एक पुरानी परंपरा है। . सितम्बर के पहले सप्ताह में पक्षी गाँव में उतरने शुरू हो जाते हैं और सारे मेहमानों के पहुँचने तक इनकी संख्या नौ से ग्यारह हज़ार तक पहुँच जाती है.
जलाशयों के पास गाँव में फैले पक्षी 
अगस्त के अंत में गाँव पहुँचने पर कुरजों का झुंड पहले स्वागत की मुद्रा में पूरे गाँव का चक्कर लगाता है और मार्च के अंत में जब वापस उड़ने का समय आता है तो उससे दो दिन पहले से ही ये पक्षी गाँव के चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं, जिसे देखकर गाँव वाले सहज ही इनकी विदाई वेला के लिए तैयार हो जाते हैं।
गाँव के चक्कर काटते पक्षी
निश्चय ही पक्षियों का यह झुंड बार बार खीचन के प्यार और यहाँ के गाँव वालों के सत्कार के तहत फिर फिर लौटकर आता है। इस परंपरा की शुरुआत कब हुई किसी को नहीं मालूम। लेकिन यह सिलसिला 200 वर्ष या इससे भी पहले से चल रहा है। कहा यही जाता है कि पहले कुछ सामान्य जैन और राजपुरोहित परिवारों ने एक दो दर्जन प्रवासी पक्षियों को दाना खिलना शुरू किया था। फिर धीरे धीरे गाँव के दूसरे लोग भी इसमें जुड़ते गए और इस दौरान पक्षियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। महत्वपूर्ण यह है कि खीचन के निवासी इन पक्षियों के आने और अपने निजी जीवन की खुशहली के बीच सीधा रिश्ता समझते हैं और इसीलिए स्वयं भूखे रहने के बावजूद  पक्षियों को दाना खिलना इन्हें ज़रूरी लगता है। कुछ इसी तरह जैसे बिशनोई माताएँ श्याम मृग के लावारिस बच्चों को अपनी छाती का दूध पिलाने में भी नहीं सकुचती। आज हजारों की संख्या में कुरजा पक्षी खीचन में उतरते हैं और अब तो इन्हें दाना देने के लिए मारवाड़ क्रेन फ़ाउंडेशन जैसे कई ट्रस्ट भी बन गए हैं। हर शाम लगभग एक टन ज्वार चुग्गाघर के मैदान में इन पक्षियों के लिए फैलाया जाता है।  
दाना फैलाते सेवाराम
कुरजा पक्षियों के झुंड रात में खीचन से दूर खेतों में सोने के लिए चले जाते है। फिर सुबह तड़के ये पहले खीचन के मैदानों में उतरते हैं, फिर धीरे धीरे  चुग्गाघर की ओर उड़ते या चलते हुए आते हैं और कुछ ही देर में पूरा चुग्गाघर इन पक्षियों से भर जाता है।
चुग्गाघर में आते पक्षी
दोपहर से पहले ही ये पक्षी खीचन के दो तीन तालाबों के आस-पास फैल जाते हैं  और शाम के ढलने के साथ ही
गाँव में फैले पक्षी
इन्हें आकाश में उड़कर अपने सुदूर खेतों की ओर जाते देखा जा सकता है।
आकाश में उड़ते पक्षी
खीचन को पर्यावरण की एक अनोखी मिसाल बनाने में  खीचन के बहुत सारे स्थानीय व्यक्तित्वों की अहम भूमिका रही है। प्रकाश टाटिया एवं मालू परिवार  का उल्लेख खास रूप से किया जा सकता है। रतनलाल मालू जिन्हें कई संस्थाओं से विभिन्न सम्मान मिल चुके हैं, दो वर्ष पहले अपनी मृत्यु तक लगातार इन पक्षियों के लिए काम करते रहे। उनके बाद अब सेवाराम का परिवार इस काम में जुटा हुआ है। दुरभिसंधि यह है कि जिन पक्षियों के कारण खीचन का नाम देश विदेश पहुँच चुका है, वही आर्थिक रूप से इस गाँव को कुछ नहीं देते। बल्कि सबसे बड़ी चुनौती इन पंछियों के आगमन को व्यावसायिकता से बचाने की है। कुछ साल पहले कुछ ठेकेदारों ने यहाँ एक होटल  बनाने की योजना बनाई थी और इसके टेंडर भी पास हो गए थे। लेकिन सेवाराम और उनके साथियों के अथक प्रयत्नों से ही होटल की योजना रद्द हुई। अब उनकी लड़ाई पक्षियों के उड़ान क्षेत्र से हाइटेंशन टावर हटाने की है। इन तारों के कारण अक्सर पक्षी घायल हो जाते हैं या मर जाते हैं। घायल पक्षियों को रखने के लिए भी सेवाराम ने एक अलग कमरा बनवाया है।
घायल कुरजा
सुदूर देशों से खीचन में हजारों पक्षियों का हर साल आना पर्यावरण की एक अनोखी वारदात है। खीचन ने सारे विश्व को दिखा दिया है कि पंछी कैसे आते हैं। लेकिन इंसान की फितरत है कि वह प्रकृति की हर सुंदरता में व्यावसायिकता ढूंढ निकालने का हुनर जानता है। आने वाले वर्षों में खीचन के वफादार पक्षियों के लिए सबसे बड़ा खतरा इसी वर्ग के लोगों से है। 
खीचन से
  जितेंद्र भाटिया